उत्सव 2017 के बहाने हम याद कर रहे हैं
नमस्कार,
जैसा कि आप जानते ही हैं हमारी स्पिक मैके की ये परम्परा रही है कि देश को अपनी कला और लेखनी के माध्यम से प्रभावित करने वाले व्यक्तित्व जो अभी हाल ही के समय में दिवगंत हुए हैं उन्हें याद करें. हमारे बीच कुछ महीने पहले दिवंगत हुए जाने-माने गांधीवादी, पत्रकार, पर्यावरणविद् और जल संरक्षण के लिए अपना पूरा जीवन लगाने वाले अनुपम मिश्र हमें प्रेरित करते रहेंगे.’आज भी खरे हैं तालाब जैसी लोकप्रिय पुस्तक हमें उनकी हमेशा याद दिलाती रहेगी.उनका सादा जीवन ही हमारे लिए प्रेरणा स्रोत है. हिंदी के दिग्गज कवि और लेखक भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे अनुपम मिश्र बीते एक बरस से प्रोस्टेट कैंसर से जूझ रहे थे. विकास की तरफ़ बेतहाशा दौड़ते समाज को कुदरत की क़ीमत समझाने वाले अनुपम ने देश भर के गांवों का दौरा कर रेन वाटर हारवेस्टिंग के गुर सिखाए.'आज भी खरे हैं तालाब', 'राजस्थान की रजत बूंदें' जैसी उनकी लिखी किताबें जल संरक्षण की दुनिया में मील के पत्थर की तरह हैं. वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन ने फ़ेसबुक पर लिखा, "स्मार्टफोन और इंटरनेट के इस दौर में वे चिट्ठी-पत्री और पुराने टेलीफोन के आदमी थे. लेकिन वे ठहरे या पीछे छूटे हुए नहीं थे. वे बड़ी तेज़ी से हो रहे बदलावों के भीतर जमे ठहरावों को हमसे बेहतर जानते थे."
रंगकर्मी और अभिनेता ओमपुरी का जाना. हमारे लिए सिनेमा में बड़े चेहरे का चले जाना है. पिछली शताब्दी के आठवें दशक में हिंदी सिनेमा में कला फिल्मों का एक ऐसा दौर आया था जिसमें देश की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समस्याओं को कला फिल्मों ने आकर्षक चेहरे और आकर्षक शरीर वाले नायकों की जगह बिल्कुल आम आदमी की शक्ल-सूरत वाले अभिनेताओं को तरजीह देकर भी एक क्रांतिकारी काम किया था. नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, कुलभूषण खरबंदा, अनुपम खेर, नाना पाटेकर, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल जैसे कलाकार उसी दौर में उभर कर सामने आए थे और अपने वास्तविक अभिनय के बल पर कला फिल्मों की जान बन गए थे। व्यावसायिक फिल्मों के अभिनेताओं जैसा भव्य रूप-सौंदर्य इन्हें भले ही न मिला हो, अभिनय के मामले में ये उन 'सुदर्शन-पुरुषों' से बहुत आगे थे। और रूप-सौंदर्य में सबसे निचले पायदान पर खड़े ओमपुरी जैसे अभिनेता ने तो अभिनय के बल पर अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहचान तक बना ली। सैंकड़ों देशी व कुछ विदेशी फिल्मों में काम कर चुके ओमपुरी की आक्रोश ,अर्धसत्य और सद्गति जैसी फ़िल्में हमेशा सराही जाती रहेंगी.
उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में जन्मे साहित्यकार विवेकी राय का देहावसान भी कुछ माह पहले हुआ है . विवेकी राय मूलतः ग्रामीण जीवन और किसान जीवन के प्रतिनिधि रचनाकार थे .गाँव की माटी की सोंधी महक उनकी खाश पहचान है. उपन्यास ,कहानी, संस्मरण, रिपोतार्ज और ललित निबन्ध लिखकर इन्होने खूब प्रसिद्धि हासिल की. उनके उपन्यास बबूल, पुरुष पुराण, लोकऋण, श्वेतपत्र, सोनामाटी, समर शेष है, मंगल भवन, नमामि ग्रामम् चर्चित रहे हैं .इनको साहित्य जगत के कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था.
इसी क्रम में हमारे बीच नहीं रहे कर्नाटक संगीत के प्रसिद्ध गायक विद्वान डॉ. एम बालमुरली कृष्ण का एक बाल प्रतिभा के तौर पर कर्नाटक संगीत के मंच पर उदय हुआ था और बाद में उन्होंने शास्त्रीय संगीत एवं सिनेमा की दुनिया में अपनी एक पहचान बनायी। दूरदर्शन पर 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' से भी वे काफी चर्चित हुए थे। बहमुखी व्यक्तित्व वाले बालमुरली कुष्ण ने ना केवल अपनी आवाज से बल्कि तेलुगू, संस्कृत, कन्नड़ और तमिल जैसी कई भाषाओं में 400 से अधिक गानों में संगीत देकर भी संगीत क्षेत्र को समृद्ध किया। बालमुरली कृष्ण ने तमिल और तेलुगू की कई फिल्मों में अभिनय भी किया था।
ख्याल, ठुमरी और भजनों को शास्त्रीय संगीत से सराबोर करने वाली गान सरस्वती विदुषी किशोरी अमोनकर ने अपनी माता मोघूबाई कुर्दिकर से संगीत की शिक्षा हासिल की जो स्वयं एक नामी गायिका थीं हमारे बीच नहीं रहीं. संगीत के क्षेत्र में उनके योगदान को स्वीकार करते हुए भारत सरकार ने किशोरी अमोनकर को वर्ष 1987 में पद्म भूषण और साल 2002 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया था. मोनकर ने गायन और जयपुर घराने की बारीकियां अपनी मां से सीखी थीं. गायिकी की अपनी अलग शैली के चलते संगीत की दुनिया में उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई थी. उन्हें हिंदुस्तानी संगीत की पारंपरिक रागों पर शास्त्रीय ख्याल गायिकी में महारत हासिल थी। ठुमरी, भजन और फिल्मी संगीत में भी उन्होंने पहचान बनाई. और इसी के साथ दिवंगत सितारवादक अब्दुल हमीद जाफ़र को भी हम स्पिक मैके की तरफ से तहेदिल से याद करते हैं. बहुत बहुत धन्यवाद !
संकलन:जितेन्द्र यादव
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